सांझी/ साँझी— को बचपन से देखता आया हूं.कभी भी इसको लगाने
का मुख्य आधार या कारण समझ नहीं पाया.न ही कोई बता पाया.घर वाले तो लगाते ही नहीं थे,नहीं
लगाने या नहीं मनाने का कारण उनकी वैज्ञानिक सोच न होकर किसी पूर्वज की इस समय हुई
मुत्यु है.जो आस-पड़ोस के लोग बड़े उत्साह से मनाते थे/ हैं ,उनको भी कुछ भी पता नहीं है.बस परंपरा
के नाम पर हर साल बना देते है.बिना किसी जिज्ञासा के.अगर इतनी जिज्ञासाएं समाज में
होती तो बहुत सी रूढ़ियां खत्म हो चुकी होती.अंत में इस के बारे में जानने के लिए गुगल
बाबा की ही मदद लेनी पड़ी.अनेक स्रोतों से जो भी जानकारियां प्राप्त हो सकी.वो सभी
इस लेख में संपादित करने का प्रयास किया है.ताकि इस के पीछे के तर्क और अंध-विश्वास,रूढ़ियां,स्त्री
विरोधी निर्मितियां आदि सभी पहलुओं को देखा समझा जा सके.सबसे ज्यादा हैरान करने वाल
बात यह लगी कि इस पर सबसे ज्यादा दैनिक-जागरण अखबार ने अपनी मेहरबानी या सांस्कृतिक
प्रेम या धार्मिक नजरिया या इन सभी का मिला-जुला कारण.कारण जो भी हो कुछ तो विचारधारा
रही होगी.वरना गुगल पर सबसे ज्यादा दैनिक-जागरण ही उभर कर आया.बहरहाल सांझी के विभिन्न
पक्ष आपके समक्ष मौजूद है-
विकीपीडिया पर सांझी से तात्पर्य-“ 'सांझी पर्व' मालवा व निमाड़
अंचल का प्रमुख पर्व है, साँझी, राजस्थान,
गुजरात,
ब्रजप्रदेश,
मालवा,
निमाड़
तथा अन्य कई क्ष्ोत्रों में कुवांरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार है
जो भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक अर्थात पूरे श्राद्ध पक्ष
में सोलह दिनों तक मनाया जाता है। सांझे का त्यौहार कुंवारी कन्याएं अत्यन्त
उत्साह और हर्ष से मनाती हैं।घर के बाहर, दरवाजे पर दीवारों पर कुंवारी गाय का
गोबर लेकर लड़कियां विभिन्न आकृतियां बनाती हैं। उन्हें फूल पत्तों, मालीपन्ना
सिन्दूर आदि से सजाती हैं और संध्या समय उनका पूजन करती हैं।तैयारी--कुँआरी
बालाएँ गोबर से दीवार लीपकर गोबर से ही संझादेवी की कलाकृतियाँ बनाती हैं। इसे फूल,
पत्ती
व रंगीन चमकीले कागजों से सजाया जाता है। प्रतिदिन शाम को कन्याएँ घर-घर जाकर
संझादेवी के गीत गाती हैं एवं प्रसाद वितरण करती हैं। प्रसाद ऐसा बनाया जाता है
जिसे कोई ताड़ (बता) न सके। जिस कन्या के घर का प्रसाद ताड़ नहीं पाते उसकी
प्रशंसा होती है।विसर्जन--अंत के पाँच दिनों में हाथी-घोड़े, किला-कोट,
गाड़ी
आदि की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। सोलह दिन के पर्व के अंत में अमावस्या को संझा
देवी को विदा किया जाता है।“
“Web dunia हिन्दी” पर सांझी
से संबंधित जानकारी- “सांझी
क्या है? कुंआरी कन्याएं इसका पूजन क्यों करती हैं? दरअसल, सांझी
'संध्या' शब्द से बना है। जो 'सांझ' से
अपभ्रंश होकर 'सांझी' बना। वैसे तो इन दिनों संध्या के समय
तुमने अपने घर या आस-पड़ोस में देखा होगा कि कई छोटी लड़कियां घर की दीवार पर पीली
मिट्टी और गोबर से कुछ आकृतियां बनाती हैं, उसका श्रृंगार
करती हैं तथा फूल-पत्तियां आदि से उनकी सजावट करती हैं। फिर उसकी पूजा-आरती करके
प्रसाद भी बांटती हैं और भजन व लोकगीत गाती हैं, यही सांझी है। कहा
जाता है कि जो भी लड़की पितृ पक्ष के दिनों में सच्चे मन से 'सांझी' की
पूजा करती है, उसे बहुत ही संपन्न और सुखी ससुराल मिलता है। सोलह
दिनों तक मनाया जाने वाला श्राद्ध पर्व समाप्त होते ही नवरात्रि के प्रथम दिन
सांझी को दीवार से उतार कर नदी में बहा दिया जाता है। अपने सुखी जीवन के लिए ही
सभी कुंआरी कन्याएं इन दिनों में सांझी का पूजन कर उनका आशीर्वाद लेती है।“
भारतकोश के अनुसार सांझी-“ब्रज में पितृ पक्ष में गृहस्थ अपने
पितृगण का श्राद्ध करते हैं, मन्दिरों में इन दिनों सांझी सजाई जाती
है । गांवों की बालिकायें सांझी का खेल खेलती हैं । यह एक लोकोत्सव है । टेसू और
झांझी भी इसी से जुड़े हैं । सांझी अर्थात सायं (सांझ) ब्रज की अधिष्ठात्रि
राधारानी और भगवान कृष्ण का सायं को मिलन लीला। द्वापर युग से चली आ रही यह अनूठी
परंपरा समय अन्तराल के साथ विलुप्त होने के कगार पर है। नगर के कुछ ही मंदिर में
जीवित ब्रज की धार्मिक संस्कृति की द्योतक इस कला को समय और लोगों में कला के
प्रति उत्साह की कमी ने धुधंला कर दिया है। ब्रज में सांझी की अनूठी परंपरा.--सांझी
ब्रजमंडल के हर घर के आंगन और तिवारे में ब्रजवासी राधारानी के स्वागत के लिए
सजाते रहे हैं। राधारानी अपने पिता वृषभानु जी के आंगन में सांझी क्वार के पितृ
पक्ष में प्रतिदिन सजाती थीं कि उनके भाई श्रीदामा का मंगल हो। इसके लिए वे फूल
एकत्रित करने के लिए वन और बाग़ बगीचों में जाती थी। इस बहाने राधाकृष्ण (प्रिया
प्रियतम) का मिलन होता था। उसी मर्यादा को जीवित रखते हुए ब्रज की अविवाहित
कन्याएं आज भी क्वार मास के कृष्ण पक्ष (पितृ पक्ष) में अपने घरों में गाय के गोबर
से सांझियां सजाती हैं। इसमें राधाकृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संप्रदाय के
ग्रंथों में मिलता है ताकि राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आएगें।
राधा जी के धाम वृन्दावन और बरसाना के आसपास के क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा
जीवित है। शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगनों को सांझी से सजाया जाता था
लेकिन समय के साथ सांझी सिर्फ़ सांकेतिक रह गई। सरसमाधुरी काव्य में सांझी का कुछ
इस तरह उल्लेख किया गया है कि सलोनी सांझी आज बनाई 'श्यामा संग रंग
सों राधे, रचना रची सुहाई।सेवाकुंज सुहावन कीनी, लता पता छवि
छाई। मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत
परम सुखराई। कविवर सूरदास ने सांझी पर पद प्रस्तुत किया कि 'प्यारी, तुम
कौन हौ री फुलवा बीनन हारीं नेह लगन कौ बन्यौ बगीचा फूलि हरी फुलवारी। आपु कृष्ण बनमाली आये तुम बोलौ कयों न पियारीं। हंसि ललिता जब कह्यौ स्याम सौं ये वृषभान
दुलारी। तुम्हारों कहा लगै या वन में रोकत गैल हमारी।'निम्बार्क
संप्रदाय की महावाणी में भी हरिप्रिया दास ने सांझी का दोहा के रूप में उल्लेखित
किया है कि'
चित्र विचित्र बनाव के, चुनिचुनि
फूले फूल। सांझी खेलहिं दोऊ मिल, नवजीवन
समतूल।'
राधाकृष्ण लीला में मिलन पक्ष को प्रकट
करने वाली सांझी लीला ठाकुर श्रीराधागोविन्द मंदिर, राधावल्लभ,
श्रीजी
मंदिर में सीमित हो गयी है । राधागोविन्द मंदिर के सेवायत गोस्वामी आचार्य रूप
किशोर ने बताया कि हिन्दी माह क्वार की एकादशी से प्रतिप्रदा तिथि तक पांच दिन
सांझी महोत्सव के तौर पर मंदिर में राधारानी का आह्वान किया जाता है। इसमें मंदिर
के चौक में सूखे रंगों, पुष्पों से सांझी बना कर मंदिर में विराजमान
ठाकुर जी के श्रीविग्रह के समक्ष उसकी पूजा, भोगराग और
गोस्वामियों द्वारा सामुहिक समाज गायन किया जाता है। यह परंपरा मंदिर में क़रीब
250 वर्षों से चली आ रही है। आचार्य ललित किशोर गोस्वामी ने बताया कि सांझी की
शुरुआत राधारानी द्वारा की गई थी। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के साथ वनों में उन्होंने
ही अपनी सहचरियों के साथ सांझी बनायी। वन में आराध्य देव कृष्ण के साथ सांझी बनाना
राधारानी को सर्वप्रिय था। तभी से यह परंपरा ब्रजवासियों ने अपना ली और राधाकृष्ण
को रिझाने के लिए अपने घरों के आंगन में सांझी बनाने लगे। बरसाना के लाडलीजी मंदिर
में यह पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की सांझी बनाई जाती है। जहां प्रतिदिन
रात्रि को बरसाना के गोस्वामी सांझी के पद और दोहा गाते हैं। सांझी के प्रकार--फूलों
की सांझी, रंगों की सांझी ,गाय के गोबर की सांझी ,पानी पर तैरती सांझी .”
(दैनिक जागरण(रोहतक)19 अक्टूबर 2012)-साँझी
परंपरा को बचाना होगा-बिधान, सदियों से चली आ रही सांझी डालने की
श्रेष्ठ परंपरा को संजोए रखने के लिए सूचना जन संपर्क एवं सास्कृतिक कार्य विभाग
की जिला शाखा द्वारा कार्यालय प्रागण में एक सांझी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।
“बिधान ने कहा कि सांझी हमारी एक श्रेष्ठ अमूल्य धरोहर है। सामाजिक
ताने बाने को बनाए रखने के लिए सूचना जन संपर्क विभाग द्वारा सांझी प्रतियोगिता
करवाने का यह बहुत अच्छा प्रयास है। उन्होंने कहा कि बहुत सी हमारी श्रेष्ठ
परंपराएं इस भागदौड़ के जमाने में दम तोड़ती सी जा रही है। इनकी प्रेरणा से आने वाली
पीढ़ी महरूम रह जाएगी। उन्होंने कहा कि साझी में मात्र गोबर, मिट्टी,
गेरू
व हल्दी जैसी चीजों से महिला कृति की ऐसी सजावट की जाती है कि मानों यह कृति मुंह
से बोलती हुई प्रतीत हो रही हो। सांझी से महिला के 16 श्रृंगार और 32 आवरण का पता
भी चलता है। उन्होंने सांझी की पौराणिक दंत कथाओं बारे उपस्थित महिलाओं से
विचार-विमर्श भी किया। उन्होंने कहा कि सांझी की इस प्रतियोगिता के लिए ग्राम स्तर
से प्रतिभागियों को और अधिक प्रोत्साहित करने की जरूरत है। यह हमारी लोक परंपराओं का
हिस्सा है और इसे समृद्ध बनाए रखना होगा।“
“खेकड़ा : देवी की प्रतीक सांझी से इन दिनों बाजार में रौनक बढ़ गई है।
बाजार में कई दुकानें सज गई हैं। नवरात्र में सांझी स्थापना की परंपरा है।
परंपरानुसार सांझी पितृ विसर्जन की शाम यानी नवरात्र की पूर्व संध्या पर स्थापित
की जाती है। कुछ लोग बाजारों से खरीदकर सांझी स्थापित करते हैं, जबकि
कुछ लोग घर पर ही सांझी बनाते हैं। छोटा बाजार स्थित दुकानदार राकेश ने बताया कि
सांझी 25 से 350 रुपये तक उपलब्ध है। नगर निवासी संजय शर्मा ने बताया कि लोग अपनी
सुविधा के अनुसार सांझी स्थापित करते हैं। कुछ विधिवत चौकी बनाकर तो कुछ अलमारी
में रखते हैं।“(दैनिक
जागरण,3 अक्टूबर 2013)
“जागरण संवाद केंद्र, अंबाला शहर : दशहरे के पूर्व तैयार की
जाने वाली सांझी प्रदेश की ग्रामीण कला की पहचान होने के साथ ही ग्रामीण लोगों की
श्रद्धा का प्रतीक भी है। सांझी हरियाणा की लोक संस्कृति का आइना है और इसे प्रदेश
के ग्रामीण क्षेत्रों में 16 श्राद्धों के मध्यकाल में महिलाएं इसे तैयार करती
हैं। सांझी को पूरी तरह तैयार करने के बाद कच्चे रंगों के साथ इसके सभी भागों को
रंगा जाता है और इसके उपरान्त घर की किसी दीवार पर सजाया जाता है। ग्रामीण परिवेश
की महिलाओं की मानें तो सांझी को घर की दीवारों पर अपने परिवार को किसी प्रकार के
अनिष्ट से बचाने के लिए लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त महिलाएं सौभाग्य अर्जन करने
के लिए भी सांझी की रचना करती है। इन महिलाओं का मानना है कि सांझी मां गौरी का
प्रतीक है और मां गौरी कुंवारी कन्याओं पर प्रसन्न होकर उन्हे अच्छे वर, धन-धान्य,
सुख
समृद्धि और पशुधन में खुशहाली का वरदान देती है। सांझी तैयार करने के लिए गांव की
बालाएं गाय का गोबर तथा गांव के तालाब से लाई गई चिकनी मिट्टी, कोड्डियां,
चूड़ियां,
बटन,
माचिस
की तिल्लियां, सितारे और गांव में उपलब्ध सरकंडो इत्यादि का
प्रयोग करती है। महिलाएं सांझी लगाते समय विशेष पूजा अर्चना करती है। हरियाणा के
अंबाला, पंचकूला और यमुनानगर जिलों की महिलाएं पंजाबी सूट और महिलाओं द्वारा
प्रयोग किए जाने वाले क्षेत्रीय आभूषणों से सांझी का श्रृंगार करती है। नवरात्रों
में महिलाएं प्रति दिन सांय काल में सांझी मां की पूजा करती है। पंजाब के साथ लगते
जिलों में सांझी के लिए गाए जाने वाले गीतों में पंजाबी भाषा का मिश्रण होता है
जबकि हरियाणा भाषा से जुड़े अन्य जिलों में ठेठ हरियाणवीं भाषा में सांझी के लिए
गीत गाए जाते है। अंतिम नवरात्रे को सांय काल में सांझी मां की प्रतिमा को दिवारों
से उतार कर मोहल्ले की सभी महिलाएं गीत गाते हुए गांव के तालाबों या नजदीक की नदी
में विसर्जित कर देती है।“(9 अक्टूबर
2013,दैनिक जागरण)
“नारनौल-!-सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की सांझी प्रतियोगिता 10 अक्टूबर
को सूचना एवं जनसंपर्क कार्यालय में होगी। स्पर्धा में भाग लेने के लिए आयु व
शिक्षा का किसी प्रकार का बंधन नहीं है। सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी सुरेश यादव ने
बताया कि 10 अक्टूबर को सुबह 10 बजे के बाद कोई एंट्री नहीं होगी। सांझी के गहने
इत्यादि भी मिट्टी के ही होने चाहिएं।“(दैनिक भास्कर,30 सितंबर 2013)
“कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में युवा एवं सांस्कृतिक मामलों के विभाग
के निदेशक एवं लोक वाद्य यंत्रों को पुनर्जीवन प्रदान करने में अपने योगदान के लिए
जाने जाने वाले अनूप लाठर कहते हैं कि निश्चित रूप से यह कला दम तोड़ रही है और
इसके संरक्षण के लिए जागरूकता की जरूरत है।अश्विन माघ में नवरात्रों से पूर्व
श्राद पक्ष लगते ही जोहड़ से मिट्टी लाकर छोटी लड़कियां सितारे और देवी के आभूषण
बनाती थीं.सूखने पर उन्हें चूने में रंगकर गेरूए रंग का तिलक लगाया जाता था।परंपरा
के अनुसार श्राद्ध के अंतिम दिन अमावस्या को दीवार पर गाय का गोबर लगाकर उसके
उच्च्पर सितारों से देवी के शरीर को आकार दिया जाता है और बाद में उसका चेहरा,
हाथ
और पैर चिपकाए जाते हैं.इसके बाद मिट्टी से बनाए गए गहनों को हाथों और पैरों में
पहनाया जाता है।ऐसा माना जाता है कि कुंवारी कन्याएं योग्य वर का वरदान मांगने के
लिए देवी सांझी को स्थापित करती हैं.नवरात्रों में लगातार नौ दिन तक सुबह देवी को
भोग लगाया जाता है और शाम के समय घर की महिलाएं और पास पड़ोस की कन्याएं देवी की
वंदना करते हुए उसे भोजन कराती हैं. अंतिम दिन यानी दशहरे के दिन देवी को दीवार से
विधि विधान के साथ उतारा जाता है और शरीर के बाकी अंगों को तो फेंक दिया जाता है
लेकिन उसके मुख को एक छेद किए हुए घड़े में रख दिया जाता है और रात्रि के समय उसके
भीतर दीपक जलाकर महिलाएं और लड़कियां गीत गाते हुए जोहड़ में उसका विसर्जन कराने
जाती हैं.ऐसी परंपरा है कि विसर्जन के समय गांव के लड़के लट्ठ आदि लेकर जोहड़ के
भीतर मौजूद रहते हैं और सांझी के मटकों को फोड़ते हैं .ऐसा इसलिए किया जाता है
ताकि सांझी तैरते हुए जोहड़ के दूसरे किनारे तक ना पहुंचे.ऐसा कहा जाता है कि
जोहड़ के दूसरे किनारे तक यदि सांझी पहुंच गयी तो यह गांव के लिए अपशकुन होगा.लेकिन
अब गांव देहात में दशहरे के अवसर पर सांझी के दर्शन कम होते जा रहे हैं.गांव देहात
में इसे पिछड़ेपन का प्रतीक मान कर लोग धीरे धीरे भूलते जा रहे हैं.रोहतक जिले के
बाह्मनवास गांव की सुमित्रा ने बताया कि गांव देहात में अब लोग सांझी की स्थापना
करना पिछड़ापन मानने लगे हैं.हां कुछ घरों में अब भी सांझी की स्थापना जरूर होती
है लेकिन आज से 20 Þ 25 साल पहले जो उत्साह होता था और जो सांझी की
धूम होती थी, वह अब नहीं रही.अनूप लाठर ने कहा कि ग्रामीण
आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने मूल्यों और रीति रिवाजों, तीज त्यौहारों
से कटते जा रहे हैं.उनमें यह जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है कि धरोहरों से
कटा हुआ समाज जड़ से उखड़े पेड़ की तरह होता है .ये तीज त्यौहार और परंपराएं ही
हैं जो जीवन में नये उत्साह का संचार करती हैं और हमें जमीन से जोड़े रखती हैं.”(दम तोड़ती सांझी कला,19 अक्टूबर 2012,जनज्वार, http://www.janjwar.com/index.php)
जारी है....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें